हिमाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में व्यापारिक सन्धि स्थलों पर कुछ व्यापारिक मेले आरम्भ हुए जिनमें समय के अनन्तर सांस्कृतिक पक्ष भी जुड़े। भोगोलिक कटाव के कारण भी ऐसे मेले जुटे जो लोगों की वर्ष-भर की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदने तथा उपज के बेचने लिए इन मेलों का इन्तजार करते थे ओर वर्ष-भर के लिए जरूरी सामान यहाँ से ले जाते। ऐसा ही एक मेला है रामपुर का लवी । यह मेला सांस्कृतिक कम, व्यापारिक ज्यादा है ।
जिला शिमला का रामपुर सतलुज-किनारे बसा हे और सतलुज के पार कुल्लू जिला हे । समुद्रतल से 924 मीटर की ऊँचाई पर बसे रामपुर में राजा बुशहर के महल हैं । यहीं बस स्टैण्ड के पास मन्दिर के साथ बौद्ध मन्दिर है। मन्दिर के साथ बोद्ध मन्दिर की परम्परा रामपुर से ही आरम्भ होती है जो पूरे किन्नौर में होती हुई पूह में समाप्त होती है । जहाँ पूर्णतया बौद्ध धर्म प्रभावी हुआ हे ।
रामपुर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द में बुशहर की राजधानी बना | कहा जाता है कि रामपुर में बुशहर के राजा केहरसिंह के शासनकाल (639-696) में लवी मेला आरम्भ हुआ । राजा केहरसिंह द्वारा तिब्बत के शासकों के साथ सीमावर्ती गाँव नमज्ञा में एक व्यापारिक समझौता हुआ | इस समझौते के अनुसार तिब्बत के व्यापारियों को ऊन तथा पश्म बुशहर में बेचने को अनुमति दी गई | इसी प्रकार बुशहर के व्यापारी तिब्बत जाकर ऊन, कपड़ा, अनाज तथा नमक बेच सकते थे ।
लवी मेले का आरम्भ कभी भी हुआ हो, इस समझौते के बाद इसे और व्यापारिक रंग मिला। अभी भी मेले का यह व्यापारिक महत्त्व कायम है। मेले में पश्म, ऊन, ऊनी वस्त्र, पट्ट, दोहड् , शालें, दुपट्टे तथा शिलाजीत, बादाम, चिलगोजे, सूखे मेवे, पहाड़ी चाय काला जीरा, सेब का क्रय-विक्रय होता है। भेड़-बकरियों तथा घोड़ों का व्यापार भी होता है । किननौर क्षेत्र में उगने वाले सभी उत्पादन यहाँ बिकने आते हैं |
पुराने समय में तिब्बत के व्यापारी लम्बी यात्रा तय करते हुए गूँठ नसल के घोड़े-खच्चर तथा भेड़-बकरियों पर्याप्त मात्रा में बिक्री के लिए लाते थे। क्या घोड़े क्या भेड़-बकरियाँ, सभी पशु भार ढोने के लिए प्रयोग में लाए जाते। इन पशुओं पर लोई पट्टी, पट्ट, पश्म, ऊन, गुदमे, नमदे, लादकर लाए जाते और बादाम, चिलगोजा, खुर्मानी जीरा, शिलाजीत आदि ले जाया जाता। नमक और चीनी का भी उस समय अधिकमहत्त्व था, अतः इनका लेन-देन भी महत्त्वपूर्ण व्यापार था । उस समय ये मेला सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मण्डी था। लवी के विधिवत् ‘खुलने’ की घोषणा राजा बुशहर द्वारा की जाती थी। राजा तथा रियासत के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के परामर्श पर ही क्रय-विक्रय आरम्भ होता था |
लवी का अर्थ लिया जाता है ‘लोई’। लोई ऊनी कम्बल को कहा जाता है। या यों कहा जाए कि लोई का अर्थ अब लवी के रूप में प्रयोग में आने लगा है तो उचित होगा। इसका दूसरा अर्थ ऊन कतरने से भी लिया जाता है। इस मौसम में लोग भेड़-बकरियों की ऊन काटकर मेले में लाते हैं। प्रदेश के ऊपरी इलाके में एक ऊनी ओवरकोटनुमा वस्त्र पहना जाता है जिसे ‘लोइया’ कहा जाता है ।
कुछ वर्ष पहले तक यह मेला राम बाजार के साथ-साथ लगता था। सड़क के साथ ऊपर की ओर महल हे तो नीचे बाजार । यह एक बड़ा बाजार हे ओर आसपास के इलाकों तथा किन्नौर तक के लिए एक मण्डी है | ये बाजार तो अब भी सजता हे किन्तु मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउण्ड बन गया है। इस ग्राउण्ड में विभिन्न विभागों की विकास प्रदर्शनियाँ लगाई जाती हैं तथा अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं | किननोर से आने वाले व्यापारियों के लिए मेला ग्राउण्ड में अब भी अलग स्थान सुरक्षित रखा गया है ।
किन्नोर से आने वाले व्यापारियों के अब भी रंग निराले हैं। ये सपरिवार वहाँ ठहरते हैं । वहीं भोजन बनाते हैं, वहीं सोते हैं। अपनी मस्ती में मदमस्त ये हँसते-गाते तथा नाचते हुए पूरे मेले में वहीं जमे रहते हैं। पश्म, शाल, पड़ी, बादाम, चिलगोजा, काला जीरा आदि का विक्रय इन लोगों द्वारा किया जाता है ।
जैसा कि अब हर मेले में होने लगा है, यहाँ भी रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाए जाते हैं। जिनमें देश तथा प्रदेश के विभिन्न भागों से आमंत्रित सांस्कृतिक दल अपना कार्यक्रम देतें हैं। ये कार्यक्रम मुख्य बाजार में उपमण्डलाधिकारी (नागरिक) कार्यालय के समीप बने मंच पर होते हैं। मेला ग्राउण्ड में अलग से पारम्परिक नृत्य चला रहता है |
यह मेला नवम्बर से 4 नवम्बर तक मनाया जाता है किन्तु इसके कुछ दिन बाद तक भी व्यापारी डटे रहते हैं। अब इस मेले में तिब्बत से व्यापारी तो नहीं आ पाते। जिला किन्नोर, जिला लाहुल-स्पिति, कुल्लू तथा शिमला के भीतरी भागों से ग्रामीण उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। चमुर्थी नस्ल के घोड़ों की प्रदर्शनी भी कुछ वर्षों से आरम्भ की गई है।
सीमान्त प्रदेशों की सीमाओं तथा प्रवेश द्वारों पर लगने वाले ये मेले व्यापारिक तथा राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहे हैं ओर आज भी सदियों पुरानी उन परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं ।